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रामचरित मानस


दोहा :


* सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार। 


गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥67 क॥



भावार्थ:-पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीर श्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥67 (क)॥


* निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।


कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार॥67 ख॥



भावार्थ:-फिर राक्षसों और वानरों के युद्ध का अनेकों प्रकार से वर्णन किया। फिर कुंभकर्ण और मेघनाद के बल, पुरुषार्थ और संहार की कथा कही॥67 (ख)॥



चौपाई :


* निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥


रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका॥1॥



भावार्थ:-नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्री रघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन किया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर,॥1॥



* सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥


पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥2॥



भावार्थ:-फिर सीताजी और श्री रघुनाथजी का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले, वह कहा॥2॥



* जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥


कहेसि बहोरि राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका॥3॥



भावार्थ:-जिस प्रकार श्री रामचंद्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आए, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजी ने विस्तारपूर्वक वर्णन किए। फिर उन्होंने श्री रामजी का राज्याभिषेक कहा। (शिवजी कहते हैं-) अयोध्यापुरी का और अनेक प्रकार की राजनीति का वर्णन करते हुए-॥3॥



* कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥


सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥4॥



भावार्थ:-भुशुण्डिजी ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर गरुड़जी मन में बहुत उत्साहित (आनंदित) होकर वचन कहने लगे-॥4॥



सोरठा :


* गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।


भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥68 क॥



भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रह से श्री रामजी के चरणों में मेरा प्रेम हो गया॥68 (क)॥



*मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।


चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन॥68 ख॥



भावार्थ:-युद्ध में प्रभु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था कि श्री रामजी तो सच्चिदानंदघन हैं, वे किस कारण व्याकुल हैं॥68 (ख)॥



चौपाई :


* देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥


सोई भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥1॥



भावार्थ:-बिलकुल ही लौकिक मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया॥1॥



* जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई॥


जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥2॥



भावार्थ:-जो धूप से अत्यंत व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?॥2॥



* सुनतेउँ किमि हरि कथा सुहाई। अति बिचित्र बहु बिधि तुम्ह गाई॥


निगमागम पुरान मत एहा। कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा॥3॥



भावार्थ:-और कैसे अत्यंत विचित्र यह सुंदर हरिकथा सुनता, जो आपने बहुत प्रकार से गाई है? वेद, शास्त्र और पुराणों का यही मत है, सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं, इसमें संदेह नहीं कि-॥3॥



* संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही। चितवहिं राम कृपा करि जेही॥


राम कपाँ तव दरसन भयऊ। तव प्रसाद सब संसय गयऊ॥4॥


भावार्थ:-शुद्ध (सच्चे) संत उसी को मिलते हैं, जिसे श्री रामजी कृपा करके देखते हैं। श्री रामजी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया॥4॥



दोहा :


*सुनि बिहंगपति बानी सहित बिनय अनुराग।


पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग॥69 क॥



भावार्थ:-पक्षीराज गरुड़जी की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काकभुशुण्डिजी का शरीर पुलकित हो गया, उनके नेत्रों में जल भर आया और वे मन में अत्यंत हर्षित हुए॥69 (क)॥



* श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरि दास।


पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास॥69 ख॥



भावार्थ:-हे उमा! सुंदर बुद्धि वाले सुशील, पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यंत गोपनीय (सबके सामने प्रकट न करने योग्य) रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं॥69 (ख)॥

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